अलौकिका पण्डिताः - चार मुर्ख पंडित

एक गुरु कुल में चार ब्राम्हण भी रहते थे।  चारों विद्या में अति निपुण थे पर व्यवहारिक ज्ञान की कमी थी। गुरूजी उनलोगों को शिक्षा के व्यवहारिकता पर महत्व देने की बार बार परामर्श देते थे।  लेकिन वो चारों विद्यार्थी गुरु जी के बातों को कम महत्व देते थे। वो चारों विद्यावान तो खूब हुए लेकिन रहे अलौकिक ही .



शिक्षा समाप्ति के बाद जब ओ घर को लौट रहे थे तो रस्ते में उन्हें एक शव यात्रा दिखाई दिया।  किसी महाजन ("बनिए") की शव यात्रा थी। 
 
पहले ब्राम्हण ने पुस्तक निकाल कर देखा। पुस्तक में लिखा था "महाजनों येन गतः स पन्थाः " . 
इसका सही अर्थ तो हुआ की महापुरुष लोग जिस मार्ग पर चलते है, वही अनुसरणीय मार्ग है। 

उपरोक्त श्लोकांश का पूर्ण श्लोक 

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः सः पन्थाः ।।


पर अलौकिक ब्राम्हण ने समझा कि, महाजन बनिए जिस रस्ते से जा रहे है वही सही रास्ता है , और अपने मित्रों को ऐसा समझाकर बनियों का अनुसरण करने लगा।  

श्मशान जाकर वे देखते है कि एक गदहा श्मशान में चार रहा है। 

अब दूसरे पंडित ने पुस्तक में देखा तो उसे ये श्लोक मिला 
"राजद्वारे श्मशाने च य: तिष्ठति स: वान्धवः।

अर्थात राजा के दरबार में किसी संकट की स्थिति में और श्मशान घाट में जो ठहरता है वो भाई है।  यह समझकर वो विद्यार्थी उस गर्धभ से गले मिलने लगे और उसका सम्मान करने लगे।

उपरोक्त श्लोकांश का पूर्ण श्लोक  

उत्सवे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे । 
राजद्वारे श्मशाने च यः तिष्ठति स बान्धवः ॥

धोबी ने ऐसा करता देख उन चारों की खूब पिटाई किया। वहां से भाग कर वो अपने राह पर चल पड़ें।  

एक ग्रामीण के यहाँ रात्रि विश्राम किये।  उस ब्यक्ति ने अतिथियों के सम्मान में कढ़ी पकौड़े खाने को दिए। 

अब पुस्तकहस्त तीसरा ब्राम्हण पुस्तक में देखता है , तो लिखा मिलता है 
"छिद्रेसु अनर्थः बाहुली भवन्ति" 

यानि छिद्र में बहुत से बेकार चीज़ होतें हैं . ऐसा समझकर वो सभी छेद वाले पकौड़े त्याग कर बिना भोजन किये चल दिए। 

उपरोक्त श्लोकांश का पूर्ण श्लोक  

यथैव पुष्पं प्रथमे विकासे समेत्य पातुं मधुपाः पतन्ति ।
एवं मनुष्यस्य विपत्तिकाले छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।।

रस्ते में नदी थी उसको पर कर के जाना था . अब नदी पार कैसे करें।  नदी में एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था।  

इसपर चौथे ब्राम्हण ने कहा रुको मित्रों मैं कुछ समाधान देखता हूँ। उसने पुस्तक में देखा तो लिखा था, "यत्पत्रं आगमिष्यति तस्मान्सेव अस्मांस्तरिस्यति " यानि जो पत्र तैरता आ रहा है वही हमें पार उतरेगा। यह कह कर वह ब्राम्हण पत्र पर चढ़ गया।


उसे डूबता देखा मित्रों ने कहा। पुस्तक में देखो अब हमें क्या करना चाहिए। पुस्तक के अनुसार "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः"  इसका सही अर्थ - सर्वनाश की स्थिति में विद्वत जन आधा का त्याग करते है आधा बचा लेते हैं.
 
ऐसा कह कर उसने डूबता मित्र की गाला काट कर , सर्व नाश की स्थिति में आधा बचाने का अलौकिक "अव्यवहारिक " प्रयास किया।

उपरोक्त श्लोकांश का पूर्ण श्लोक  

सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मर्धं त्यजति पण्डित:। 
अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह:।।

इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है? 

किताबी ज्ञान से व्यवहारिक ज्ञान ज्यादा महत्व रखता है। 


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